महिला दिवस साधारण स्त्रियों की असाधारण गाथाओं के नाम
महिला दिवस हम सभी का अस्मिता दिवस है। गरिमा दिवस या जागरण दिवस कह लीजिए। उन जुझारू और जीवट महिलाओं की स्मृति में मनाया जाने वाला जो काम के घंटे कम किए जाने के लिए संघर्ष करती हुई शहीद हो गई। इतिहास में महिलाओं द्वारा प्रखरता से दर्ज किया गया वह पहला संगठित विरोध था। फलत: 8 मार्च नियत हुआ महिलाओं की उस अदम्य इच्छाशक्ति और दृढ़ता को सम्मानित करने के लिए। जब हम ‘फेमिनिस्ट’ होते हैं तब जोश और संकल्पों से लैस हो दुनिया को बदलने निकल पड़ते हैं। तब हमें नहीं दिखाई देती अपने ही आसपास की सिसकतीं, सुबकतीं स्वयं को संभालतीं खामोश स्त्रियां। न जाने कितनी शोषित, पीड़ित और व्यथित नारियां हैं, जो मन की अथाह गहराइयों में दर्द के समुद्री शैवाल छुपाए हैं।
स्मृति आदित्य
कब-कब, कहां-कहां, कैसे-कैसे छली और तली गई स्त्रियां। मन, कर्म और वचन से प्रताड़ित नारियां। मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक-असामाजिक कुरीतियों, विकृतियों की शिकार महिलाएं। सामाजिक ढांचे में छटपटातीं, कसमसातीं औरत, जिन्हें कोई देखना या सुनना पसंद नहीं करता। क्यों हम जागें किसी एक दिन। क्यों न जागें हर दिन, हर पल अपने आपके लिए। महिला दिवस किसी ‘श्राद्ध’ की तरह लगता है जब हमारे ही देश में कोई आयशा हंसते हुए साबरमती में समा जाती है, कोई निर्भया अपनी मौत के सालों बाद इंसाफ पाती है…जब नन्ही-कोमल बच्चियां निम्न स्तरीय तरीके से छेड़छाड़ की शिकार होती हैं। जब हम छोटे-छोटे बच्चे-बच्चियों को गुड टच-बेड टच सिखाते हैं तो शर्म से पानी पानी हो जाते हैं.. कि क्यों हमारा बचपन भी सुरक्षित नहीं… कितना गिर गए हैं हम और अभी कितना गिरने वाले हैं। रसातल में भी जगह बचेगी या नहीं? एक अजीब-सा तर्क भी उछलता है कि महिलाएं स्वयं को परोसती हैं तब पुरुष उसे छलता है। या तब पुरुष गिरता है। सवाल यह है कि पुरुष का चरित्र इस समाज में इतना दुर्बल क्यों है? उसके अपने आदर्श, संस्कार, मूल्य, नैतिकता, गरिमा और दृढ़ता किस जेब में रखे सड़ रहे होते हैं? सारी की सारी मयार्दाएं देश की ‘सीताओं’ के जिम्मे क्यों आती हैं जबकि ‘राम’ के नाम पर लड़ने वाले पुरुषों में मयार्दा पुरुषोत्तम की छबि क्यों नहीं दिखाई देती? पुरुष चाहे असंख्य अवगुणों की खान हो स्त्री को अपेक्षित गुणों के साथ ही प्रस्तुत होना होगा।
यह दोहरा दबाव क्यों और कब तक? एक सहज, स्वतंत्र, शांत और सौम्य जीवन की हकदार वह कब होगी? स्त्री इस शरीर से परे भी कुछ है, यह प्रमाणित करने की जरूरत क्यों पड़ती है? वह पृथक है, मगर इंसान भी तो है। उसकी इस पृथकता में ही उसकी विशिष्टता है। वह एक साथी, सहचर, सखी, सहगामी हो सकती है लेकिन क्या जरूरी है कि वह समाज के तयशुदा मापदंडों पर भी खरी उतरे? हर जगह आंकड़े दिल दहलाने वाले हैं, वहीं आंकड़ों के पीछे का सच रुला देने वाला है। बशर्ते हममें संवेदनशीलता का अहसास बूंदभर भी बचा हो। ‘घरेलू हिंसा कानून’ जैसे कानून बनते रहे, मगर सच यह है कि हममें कानून तोड़ने की क्षमता अमलीकरण से ज्यादा है। बहुत मन होता है कि दिवस के बहाने कुछ सकारात्मक सोचें, मगर जब चारों ओर दहेज, बलात्कार, अपहरण, हत्या, आत्महत्या, छेड़छाड़ प्रताड़ना, शोषण, अत्याचार, मारपीट, भ्रूण हत्या और अपमान के आंकड़े बढ़ रहे हों तो महिला प्रगति किन आंखों से देखें? महिलाओं के प्रेरणादायी चरित्र गिनाए जा सकते हैं, मगर कैसे भूल जाएं हम उस भारतीय स्त्री को जो गांवों और मध्यमवर्गीय परिवारों की रौनक है, लेकिन रोने को मजबूर है। महिला दिवस पर चमचम साड़ी में सिर्फ ‘महिला’ होने का अवॉर्ड हाथ में लेती, महानगरों में रंगीन वस्त्रों में थिरकती-झूमती, क्लबों में खेलती-इठलाती महिलाएं तो कतई स्वतंत्र नहीं कही जा सकतीं। जिनकी अपनी कोई सोच या दृष्टिकोण नहीं होता सिवाय इसके कि ‘मैच’ के ‘बूंदें’ और सैंडिल कहां से मिल सकेंगे। बजाय इसके स्वतंत्र और सक्षम मान सकते हैं उस महिला को जो मीलों कीचड़ भरा रास्ता तय करके ग्रामीण अंचलों में पढ़ने या प्रशिक्षण देने के लिए पहुंचती है। हम नमन कर सकते हैं उस महिला जिजीविषा को जो कचरा बिनते हुए पढ़ने का ख्वाब बुनती है और एक दिन अपना कंप्यूटर सेंटर संचालित करती है। मसाला, पापड़, वाशिंग पावडर जैसी छोटी-छोटी चीजें बनाती हैं और कर्मशीलता का अनूठा उदाहरण पेश करती हैं। मेरे लिए सक्षम है भोपाल की हीरा बुआ जो कोरोना काल में लावारिस लाशों को अंतिम संस्कार का सम्मान दे रही है… हम महिला दिवस मना रहे हैं उन साधारण महिलाओं की ‘साधारण’ उपलब्धियों के लिए जो ‘असाधारण’ हैं। महिला दिवस मनाया जाए उन तमाम मजदूर, कामगार और कामकाजी महिलाओं के नाम, जो सीमित दायरों में संघर्ष और साहस के उदाहरण रच रही हैं। एकदम सामान्य, नितांत साधारण मगर सचमुच असाधारण, अद्वितीय। वे महिलाएं जो तमाम विषमताओं के बीच भी टूटती नहीं हैं, रुकती नहीं हैं… झुकती नहीं हैं। अपने-अपने मोर्चों पर डटी रहती हैं बिना थके। सम्माननीय है वह भारतीय नारी जो दुर्बलता की नहीं प्रखरता की प्रतीक है। जो दमित है, प्रताड़ित है उन्हें दया या कृपा की जरूरत नहीं है, बल्कि झिंझोड़ने और झकझोरने की आवश्यकता है। वे उठ खड़ी हों। चल पड़ें विजय अभियान पर। विजय इस समाज की कुरीतियों पर, बंधनों पर और अवरोधों पर। शुभकामनाएं साल के पूरे 365 दिवस की। इसी क्षण की।
आखिर 8 मार्च को ही क्यों मनाया जाता है अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस?
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2021: 8 मार्च यानी आज दुनियाभर में लोग अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मना रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को मनाने के पीछे का लक्षय है समाज में महिलाओं को बराबरी का अधिकार देना और समाज में उनकी भागीदारी को बढ़ावा देना। हर देश में इस दिन को अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। इस दिन महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों को याद किया जाता है। ज्यादातर लोग इस दिन महिलाओं को फूल और गिμट्स देते हैं। कई देशों में इस दिन अवकाश होता है, स्कूल, कॉलेज, दμतरों में महिलाओं को आज के दिन छुट्टी दी जाती है। लेकिन बहुत कम ही लोग ऐसे हैं, जो अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से जुड़े इतिहास के बारे में जानते हैं, कि आखिर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुरूआत कैसे हुई, ये 8 मार्च को ही क्यों मनाया जाता है, इत्यादी। तो आइए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से जुड़ी इन सारी बातों को जानते हैं।
कब और कैसे शुरू हुआ महिला दिवस मनाना?
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की शुरूआत एक विरोध आंदोलन से हुई है। साल 1908 में 28 फरवरी को तकरीबन 15 हजार महिलाओं ने अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में मार्च निकालकर नौकरी में कम घंटों, पुरुष के समान सैलरी और वोट करने के अधिकार के लिए विरोध प्रदर्शन किया था। ठीक इसके एक साल बाद 1908 में सोशलिस्ट पार्टी आॅफ अमेरिका ने 28 फरवरी के इस दिन को पहला राष्ट्रीय महिला दिवस घोषित कर दिया। इसके बाद यह फरवरी के आखिरी रविवार के दिन मनाया जाने लगा।
महिला दिवस अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने की शुरूआत कैसे हुई?
महिला दिवस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने के बारे में क्लारा जेटकिन ने सबसे पहले सोचा था। क्लारा जेटकिन ने 1910 में कोपेनहेगन में कामकाजी महिलाओं की एक इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का पहली बार सुझाव दिया था। उस वक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में दुनियाभर के 17 देशों की 100 महिलाएं शामिल थीं। सभी ने इस सुझाव का समर्थन किया और 1910 में ही सोशलिस्ट इंटरनेशनल के कोपेनहेगन सम्मेलन में महिला दिवस को अंतरराष्ट्रीय दर्जा दिया गया। उस समय इसका प्रमुख उद्देश्य महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिलवाना था, क्योंकि उस समय अधिकतर देशों में महिला को वोट देने का अधिकार नहीं था। सबसे पहले 1911 में स्विट्जरलैंड, आॅस्ट्रिया, डेनमार्क और जर्मनी में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया था। 1917 में सोवियत संघ ने इस दिन को एक राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया था। और यह आसपास के अन्य देशों में भी ये फैल गया। जिसके बाद अब कई पूर्वी देशों में भी ये मनाया जाता है।
आखिर 8 मार्च को ही क्यों मनाया जाता है अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस?
अब सवाल उठता है कि आखिर फरवरी के आखिरी रविवार से 8 मार्च का दिन अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के लिए क्यों चुना गया और कैसे चुना गया? असल में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का कॉन्सेप्ट लाने वाली क्लारा जेटकिन ने महिला दिवस मनाने के लिए किसी तारीख को निर्धारित नहीं किया था। 1917 में युद्ध के दौरान रूस की महिलाओं ने ‘ब्रेड एंड पीस’ यानी रोटी और कपड़े के लिए हड़ताल पर जाने का फैसला किया था। यह हड़ताल भी ऐतिहासिक थी क्योंकि महिलाओं की हड़ताल ने वहां के सम्राट निकोलस को अपना पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया था। उसके बाद अन्तरिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने के अधिकार दिया। उस समय रूस में जूलियन कैलेंडर चलता था और बाकी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलेंडर चलता था। जिस दिन महिलाओं ने यह हड़ताल शुरू की थी वो तारीख 23 फरवरी थी। ( रूस के जूलियन कैलेंडर के अनुसार) ग्रेगेरियन कैलेंडर में यह दिन 8 मार्च था। उस वक्त पूरी दुनिया में ग्रेगेरियन कैलैंडर चलता है। इसलिए उसी के बाद से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को मनाया जाने लगा।
1975 में संयुक्त राष्ट्र ने दी अधिकारिक मान्यता संयुक्त राष्ट्र ने 1975 में महिला दिवस को आधिकारिक मान्यता दी। संयुक्त राष्ट्र ने महिला दिवस को वार्षिक तौर पर एक थीम के साथ मनाना 1975 में शुरू किया। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की पहली थीम थी ‘सेलीब्रेटिंग द पास्ट,प्लानिंग फॉर द फयूचर।’ यानी बीते हुए वक्त का जश्न मनाए और आने वाले कल की प्लानिंग करें। साल 2021 के अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की थीम है, चूज टू चैलेंज।